Patna: बिहार की राजनीति में बहसें अब मुद्दों पर नहीं, खानदानों पर होती दिख रही हैं। विधानसभा का मॉनसून सत्र गवाही है उस सियासी जंग की, जिसमें नीतीश कुमार ने एक बार फिर अपनी जुबान का निशाना तेजस्वी यादव नहीं, बल्कि उनके माता-पिता राबड़ी देवी और लालू प्रसाद यादव को बना लिया।
"तुम बैठो पहले, तुम बच्चे हो... तुम्हारे माता-पिता का राज देखा है हमने..."
ये शब्द किसी नुक्कड़ की बहस में नहीं, बल्कि राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हैं, जो सदन में खड़े होकर तेजस्वी को समझा नहीं, जलील कर रहे थे। मुद्दा था एसआईआर पर बहस का, लेकिन नीतीश भड़क उठे — और सीधे लालू-राबड़ी की सरकार को घसीट लाए।
कहां तेजस्वी ने सदन में बीजेपी को घेरा, कहां नीतीश ने मोर्चा ही बदल दिया – "शाम होते ही लोग घरों से नहीं निकलते थे", "2005 से पहले का बुरा हाल था"... यानि साफ है कि सीएम मुद्दों पर जवाब नहीं देना चाहते, बल्कि अतीत का डर दिखाकर राजनीति चमकाना चाहते हैं।
और ये कोई पहली बार नहीं है। चुनावी मौसम चढ़ते ही नीतीश को लालू-राबड़ी की याद आ जाती है। सवाल ये है कि क्या हर बार तेजस्वी से लड़ने के लिए उनके मां-बाप को मैदान में लाना जरूरी है? क्या नीतीश कुमार अब अपनी सरकार के कामकाज से भरोसा दिलाने में नाकाम हैं, जो बार-बार पुराने पन्ने पलट कर लोगों को डराने की कोशिश कर रहे हैं?
सियासत में तंज चलती है, लेकिन जब हर बहस वंशवाद के सहारे हो, तो मतदाता भी पूछेगा – “नीतीश जी, तेजस्वी से बहस है या उनके खानदान से?”