पटना , 2 December 2025
बिहार की राजनीति एक बार फिर सुर्खियों में है। सत्ता के समीकरणों, गठबंधनों और बदलते बयानों के बीच एक पुराना सवाल फिर उठ रहा है—क्या इतिहास खुद को दोहरा रहा है?
तो कुछ कहा जाता है कि राजनीति में स्थायी कुछ नहीं होता—न दोस्त, न दुश्मन और न ही कुर्सी। बिहार में इस कथन का सबसे बड़ा उदाहरण दो चेहरे हैं—लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार।
कब पहली बार "बेघर" हुए थे नीतीश कुमार?
जबकि लालू यादव 90 के दशक में बिहार की राजनीति का सबसे मजबूत नेता थे, उस समय नीतीश कुमार उनकी मंडली में तो थे, लेकिन निर्णय प्रक्रिया से दूर।
ऐसा कई बार हुआ कि राजनीतिक निर्णयों और संगठन में हस्तक्षेप को लेकर बढ़े मतभेद के कारण नीतीश को लालू के नेतृत्व से बाहर होना पड़ा।
यह माना जाता है कि यही पहला राजनीतिक “वनवास” था।
दूसरी बार सत्ता से दूर
2014 और 2017 के राजनीतिक घटनाक्रम में भी हालात ऐसे बने कि नीतीश कुमार को राजनीतिक और नैतिक रूप से कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा।
लगा कि नीतीश की राजनीतिक जगह कम हो रही है और लालू यादव फिर मजबूती में हैं।
लेकिन अब क्या चक्र घूम गया?
2025 में बिहार की राजनीति ने एक और मोड़ ले लिया है.
जिस तरह कभी नीतीश को किनारे किया गया था, आज वैसा ही माहौल लालू परिवार और राजद के लिए बताया जा रहा है ।
राजनीतिक विश्लेषक कह रहे हैं कि—
“बिहार में राजनीति का पहिया वैसे ही घूम रहा है, जैसे 20 साल पहले घूमता था… बस भूमिकाएँ बदल गई है।”
क्यों हो रही है ये चर्चा?
गठबंधन की बदलती रफ्तार नेताओं के पुराने बयान फिर वायरल चुनावी सियासत में नई चालें दोनों दलों में रणनीति युद्ध इन परिस्थितियों ने इस बहस को फिर ज़िंदा कर दिया है— क्या इतिहास वास्तव में बिहार की राजनीति को दोहरा रहा है?